प्राचीन काल से ही नहटौर नगर अहले सादात और तगा चौधरियों के राजा-रजवाड़ों के साथ वस्त्रों की बुनाई और छपाई के लिए मशहूर रहा है। यहां के बुने और छपे वस्त्र कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक खास पहचान रखते हैं। विशेषकर बुने वस्त्रों में गद्दों की टिकन, खादी चैक, अंगोछे, रुमाल और छपाई में खादी की छींक, लिहाफ, चादरों आदि का देशभर में कोई मुकाबला नहीं था।
दूरदराज के बड़े व्यापारी लंबी यात्राएं करके इन्हें खरीदने नहटौर आते थे। देश के विभाजन से पूर्व लाहौर, पेशावर और अफगानिस्तान तक स्थानीय व्यापारी ये वस्त्र बेचने जाते थे। नहटौर, फुलसंदा, सेढ़ी, सेढ़ा, मिलक, करौंदा, रवाना शिकारपुर, बास्टा, पीपली, स्योहारा, ताजपुर, नूरपुर, चांदपुर, नगीना आदि क्षेत्र वस्त्रों की बुनाई के लिए जाने जाते थे। वहीं नहटौर, नसीरपुर, ताजपुर, सदरुद्दीननगर, हिंदूपुर, तीबड़ी मंझेड़ा आदि क्षेत्र वस्त्रों की छपाई के लिए सुप्रसिद्ध थे।
कुछ ग्रामों को छोड़कर आज जिले के अधिकांश क्षेत्रों में रोजगार का स्वरूप बदल चुका है।
घरों से न अब करघों की आवाज आती है और न ही गुजरती बरसात के साथ लिहाफों की तैयारियां शुरू करते छपाई दस्तकारों के घरों से कपड़ों की कुटाई, कुंदाई और अड्डों पर कपड़ों की ठप्पों से छपाई की आवाज सुनाई देती है। इस काम में लगे परिवार दिन-रात जुटे रहते थे। इन्हें चार महीनों तक फुरसत नहीं मिलती थी। बुनाई क्षेत्र में ‘पावरलूम’ और छपाई क्षेत्र में ‘स्क्रीन प्रिंटिंग’ के आने के बाद संपन्न बुनकरों और छीपियों ने करघों और छपाई के अड्डों से किनारा कर लिया। पावरलूम पर वस्त्रों की बुनाई और स्क्रीन प्रिंटिंग मेज पर वस्त्रों की छपाई की विद्युतीय गति इन्हें और ज्यादा धनवान बनाने में सहायक बनी। वहीं नई तकनीक बुनाई और छपाई के हुनरमंद लोगों को बेकारी के दलदल में झोंकने का कारण भी बनी।
गरीब छपाई दस्तकारों और बुनकरों ने पुश्तैनी काम को जीवित रखने हेतु काफी संघर्ष किया। केंद्र और प्रदेश सरकार ने इनकी आर्थिक दशा सुधारने के लिए कानपुर में हथकरघा निगम और वस्त्र जैसे बड़े संस्थानों की स्थापना कर अरबों के बजट का प्रावधान किया। 1976 में नहटौर में स्थापित प्रथम वस्त्र उत्पादन केंद्र का विस्तार कर धामपुर में हथकरघा उत्पादन विकास परियोजना का मुख्यालय स्थापित किया गया। इसका उद्घाटन सूबे के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने किया था। वर्ष 1980 आते-आते उक्त परियोजना के अंतर्गत वस्त्र उत्पादन का वार्षिक टर्नओवर 20 करोड़ से अधिक हो गया था। 1989 में नहटौर में वस्त्र छपाई उत्पादन केंद्र की स्थापना हुई। ये परियोजनाएं बुनकरों व छपाई दस्तकारों के आर्थिक उत्थान के लिए समर्पित थीं, लेकिन कई दशकों में भी ये संस्थान आत्मनिर्भर नहीं हो पाए। ये केंद्र सरकार से मिलने वाली अरबों रुपयों की सब्सिडी पर आधारित रहे। बिचौलिया वर्ग ने अफसरशाही से हमसाज होकर इन संस्थानों को दीमक की तरह चाट डाला।
पीवी नरसिंह राव सरकार ने इन संस्थानों के सब्सिडी के प्रावधान को समाप्त किया तो ये रेत के महल के तरह भरभराकर जमींदोज हो गए। वहीं सूत की महंगाई और स्थानीय वस्त्रों की घटती मांग ने स्थानीय बुनकरों की कमर तोड़ डाली। बुनकरों की युवा पीढ़ी पुश्तैनी पेशे से निराश होकर रोजी-रोटी के लिए मुंबई, सूरत, दिल्ली आदि शहरों में अन्य कामों में लग गई।