“ये तो ऐसा ही होता आया है या हमारे बड़े भी ऐसा ही करते थे” तो समझलीजे की उनका अक़्ली शउर अब अपने निचले पायदान पर है, किसी भी पर्सनल सोशल काम को बिना सही ग़लत समझे सिर्फ़ ये सोच कर करना की आपके बड़ो ने भी ऐसा किया था आपको और आपकी आने वाली जनरेशंस को जहालत के गहरे गड्ढे में धकेल देता है, और जहालत की ताक़त ये है की इसको जरा सी सपोर्ट मिले तो इसको रवायत फिर बिदात और फिर इबादत बनने में देर नहीं लगती.
हमे चाहिए की अपनी औलादों को सिर्फ़ तसबीह, गिनती और रटने वाला दीन ना सिखा कर उन्हें ज़िंदगी का सही तरीक़ा और मकसद सिखाए, जब माँ बाप औलादो की परवरिश सिर्फ़ इस मकसद से करें की कल वो उनका सहारा हो या दुनिया में उनका नाम हो, आलिमे दीन अपने मकसद और मतलब की खातिर लोगो की मर्ज़ी का दीन उनके सामने रखने लगें तो समझ लीजे क़यामत आए या ना आए पर आप एक मुर्दा क़ौम ज़रूर हैं, आख़िर क्यों बचपन से सिर्फ़ एक ही हदीस को घुट्टी की तरह हम अपने बच्चों को परोसते हैं कि माँ के पैरों के नीचे जन्नत है बाप जन्नत का दरवाज़ा है, ये है सही है और कोई शक नहीं इसमें पर ये क्यों नहीं मानते की अगर उन्ही बच्चों की सही तरबियत ना हुई वो अच्छे इंसान ना बने, उन्हें हक़ और नाहक़ की तमीज़ ना सिखाई तो माँ बाप पर जहन्नम के दरवाज़े भी खुल सकते हैं.
बच्चों पर अगर माँ बाप की ख़िदमत फ़र्ज़ है तो माँ बाप पर भी बच्चों की सही तरबियत और सही परवरिश फ़र्ज़ है, उनको सही तालीम ना देना हक़ तल्फ़ी है, उनकी सही टाइम पर सही तरीक़ा से शादी ना करना भी हक़ तल्फ़ी है, आख़िर क्यों हमारा इमाम हमारा मोलवी मस्जिदों की सफ़ में खड़ा हो कर लोगो को अख़लाक़, आपसी मामलात और हराम हलाल नहीं समझाता, आख़िर क्यों ये लोग ग़रीब की महफ़िल में तसबीह तावीज़ जहन्नम अज़ाब की बाते और अमीर की महफ़िल में ज़कात और सदक़ात की हदीसे और आयात सुनाने लग जाते हैं, आखिर में फिर दुहराना चाहूँगा की घर की बर्बादी एक छोटी सी गलती या बुराई को देख कर कबूतर की तरह आँख बंद करने से शुरू होती है, और फिर ये बुराई रवायत बनती है और ये रवायतें जिहालत बनते बनते इबादतें बन जाती हैं, और याद रहे अबकी बार आपके सुधार के लिए कोई पैग़म्बर नहीं आने वाला, वो आखरी थे, आप भी आखरी हो,
शानू सिद्दीकी