हम इन फ़िल्मी सितारों को अपनी ज़िन्दगियों में साथ-साथ लेकर चलतें हैं और कभी कभी तो इनकी सिनेमाई ज़िंदगी को अपनी असल ज़िन्दगी में जीते भी हैं। इसलिए यह उचित जान पड़ता है कि हम, समाज और सामाजिक समस्याओं पर पड़ने वाले उनके उन प्रभावों पर चर्चा करें, जो जमी-जमाई सामाजिक विमर्शों पर चोट करतें हैं। दुर्भाग्यवश, सिनेमा के सितारों को अपने कार्य क्षेत्र के अलावा अन्य सामाजिक कार्यो पर चुप्पी के लिए कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है। कला और संस्कृति के मामले में अन्य देशों के लिए यह बात पूर्णतया सत्य नहीं है, विशेषकर हॉलीवुड के लिए। वहाँ फिल्मी सितारों का सामाजिक कार्यों को समर्थन एक आम बात है और यह समाज का परिपक्व होना दर्शाता है।
उदाहरण के लिए जॉर्ज क्लोनी का एनफ़ प्रोजेक्ट, एकोन का लाइटिंग अफ्रीका और मेरील स्ट्रिप का मानव अधिकार अभियान का नाम लिया जा सकता है। गोल्डन ग्लोब्स पुरस्कार वितरण समारोह के मौके पर मानव अधिकार अभियान को धन मुहैय्या करवाने के लिए आयोजित उत्सव के अवसर पर दिया गया मेरील स्ट्रिप का उत्साही भाषण, का विशेष उल्लेख आवश्यक है। दिल को छू जाने वाले डोनाल्ड ट्रम्प की आलोचना से उसने न सिर्फ गोल्डन ग्लोब का पुरस्कार जीता बल्कि लाखों दिलों को भी जीत लिया।
फिल्मी सितारों का सामाजिक कार्यो और व्यापक राजनीति में रुचि का कम होना विचार विमर्श का एक अहम मुद्दा हो सकता है। फिर भी हम यह निर्विवादित रूप से स्वीकार कर सकते हैं कि फिल्मी सितारों ने समाज से बहुत कुछ तो लिया लेकिन वो समाज को कुछ भी वापस करने में असफल रहे।
क्या यह हमेशा सत्य था? मैं निश्चित नही हुँ. मेरे मन मे इस सामान्य नियम का एक अपवाद आता है, यह अपवाद कोई और नहीं बल्कि खासतौर से प्रतिभावान, सुपरस्टार, हरदिल अज़ीज़ सर्वकालिक ट्रेजेडी किंग, खानों में पहला खान दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान साहब हैं। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि ऊंची जाति का होने और देश के कुलीन वर्ग में अभिजात्य प्रतिष्ठा हासिल कर लेने के बावजूद भी दिलीप कुमार ने मुस्लिम समाज के वंचितों के संघर्ष में बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया लिया है। अपवाद स्वरूप यह एक दुर्लभ और असाधारण काम है। इस फिल्मी सितारे ने सिनेमा के मंच से बाहर अपने सक्रिय जीवन के आखिरी विशेष पलों को आल इंडिया ओबीसी आर्गेनाइजेशन द्वारा महाराष्ट्र के पसमांदा के अधिकारों के संघर्ष में सम्मिलित होकर गुज़ारा है। दिलीप कुमार की ज़िन्दगी के इन अनजाने पहलुओं के निशान को ढूंढने के लिए मैंने उनके संघर्ष के साथियों, विलास सोनावाने, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता और आल इंडिया ओबीसी आर्गेनाइजेशन के संस्थापक हैं, हसन कमाल, जो भारतीय सिनेमा के एक प्रसिद्ध गीतकार हैं, और शब्बीर अंसारी जो आल इंडिया ओबीसी आर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष हैं, से पूछताछ किया। और इन लोगों ने काफी दयालुता से मेरा साथ दिया।
विलास सोनावाने पहली बार दिलीप कुमार से इस्लाम जिमखाना मुम्बई में मिले। इस मुलाकात में विलास सोनावाने ने अपने संगठन के बारे में तथा संगठन द्वारा पसमांदा मुस्लिमों के लिए किये जाने वाले संघर्ष और विचार से अवगत कराया। दिलीप कुमार सामाजिक तौर पर संवेदनशील और उदार होने के कारण विलास सोनावाने की बात को बहुत इत्मीनान से सुना। उन दिनों दिलीप कुमार सामाजिक कार्यों को समर्थन करने में बहुत सक्रिय थे, हसन कमाल बताते है कि जब कभी भारतीय सेना से सम्बंधित किसी भी मुद्दे या किसी अन्य प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़ आदि की बात उनतक पहुँचती थी तब वो घर से बाहर निकल कर हर सम्भव मदद को आगे आते थे। दिलीप साहब का मानना था कि कोई भी फिल्मी हस्ती अगर सामाजिक कार्यों में समाज के साथ शामिल नहीं होती तो लोग उसे पर्दे से उतरते ही भुला देंगें। यह सिर्फ सामाजिक कार्य ही हैं जो उसे जीवित रखेगा।
जब विलास सोनावाने और शब्बीर अंसारी ने दिलीप कुमार को मंडल आयोग की रिपोर्ट और पसमांदा मुस्लिमों पर उसको लागू करवाने के आल इंडिया ओबीसी आर्गेनाइजेशन के अभियान के बारे में यह बताया कि इससे 85% मुस्लिम जो पसमांदा हैं लाभान्वित हो सकते हैं, तो दिलीप कुमार ने भी सहमति जताते हुए कहा कि बाकी बचे 15% को आरक्षण के सहारे की भी ज़रूरत नहीं क्यूंकि वो पारंपरिक रूप से काफी संपन्न हैं। दिलीप कुमार ने विलास सोनावाने से वादा किया कि इस अभियान के लिए जो कुछ भी आवश्यक होगा वो करेंगें। फिर भी उन्होंने जो किया वो सबके उम्मीदों से बढ़ के था।
शीघ्र ही दिलीप साहब आधिकारिक रूप से आल इंडिया ओबीसी आर्गेनाइजेशन में सम्मिलित हुए और संगठन के कार्यो में लगभग प्रतिदिन एक सक्रिय सहयोगी की भूमिका निभाई। बात 1990 की है। दिलीप कुमार ने पूरे देश में होने वाले लगभग सैंकड़ों जनसभाओं में हिस्सा लिया। इन जनसभाओं को विलास सोनावाने, शब्बीर अंसारी और हसन कमाल के साथ संबोधित भी किया। उनकी औरंगाबाद और लखनऊ में होने वाली जनसभाए महत्वपूर्ण घटनाएं थी जिसने पूरे राजनैतिक परिदृश्य को छकझोर के रख दिया। दिलीप कुमार के आभामंडल ने ना सिर्फ विशाल जनसमूह को आकर्षित किया बल्कि राजनैतिक वर्ग को भी लोगों की इस माँग के लिए झकझोर कर जगा दिया।
अपनी जनसभाओं में दिलीप साहब इस बात पर ज़ोर दिया करते थे कि पसमांदा विमर्श के सवाल को धार्मिक मुद्दे के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि एक सामाजिक उपाय के रूप में देखना चाहिए जो सामाजिक और शैक्षिक आधार पर पिछड़े, पसमांदा मुस्लिमों की उन्नति के लिए अपेक्षित है। वो इस बात पर ज़ोर देते थे कि पसमांदा नें जाति-आधारित भेदभाव को भुगता है, पेशे और व्यवसायिक जातियों में भेदभाव पूर्ण वर्गीकरण ने उनके आर्थिक गतिशीलता और सामाजिक उन्नति के रास्ते को अवरुद्ध किया है। चूँकि आरक्षण एक संवैधानिक प्रक्रिया है, इसलिए वंचित समुदायों को इसका उपयोग अपने सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए करना चाहिए। दिलीप साहब ने लोगों को संगठित होने में मदद की. आरक्षण की अवधारणा समझने के लिए तैयार किया, और उन्होंने कोशिश की कि लोग संगठित होकर एक समान मंच से आंदोलन करें। वह उस आवाज़ के विस्तार का माध्यम बने जो अब तक सुनी ही नहीं गयी थी। वैसे तो आल इंडिया ओबीसी आर्गेनाइजेशन सन 1978 से पसमांदा मुद्दों पर काम कर रही थी, लेकिन दिलीप कुमार के साथ ने इस आंदोलन में जान फूँक दी। सरकार उन लाखों लोगों की आवाज़ों और माँग सुनने को मजबूर हुई जो संगठन से जुड़े थे। परिणाम स्वरूप महाराष्ट्र सरकार को सामाजिक और शैक्षिक आधार पर पिछड़े पसमांदा को ओबीसी में शामिल करने के लिए 7 दिसंबर 1994 को एक शासनादेश निर्गत करना पड़ा। राज्य सरकार को इस मामले में लगभग 57 परिपत्र और आदेशों को निर्गत करना पड़ा। उस समय यह पसमांदा आंदोलन की एक बहुत बड़ी सफलता थी।
बढ़ती हुई हैसियत
इस पूरी कहानी में दिलीप कुमार की सामाजिक स्थिति और उनकी जीवन यात्रा का वर्णन बचा रह गया है। अब सवाल ये उठता है कि कैसे एक सामंतवादी पृष्टभूमि का पठान पसमांदा के लिए लड़ने वाला कार्यकर्ता बना? कुछ है जो अभूतपूर्व है, मैं अब भी इस स्पष्टीकरण से किसी प्रकार भी संतुष्ट नही हूँ कि दिलीप कुमार के दयालु प्रवृति का होना उनके इस आंदोलन में असाधारण सहभागिता का कारण था।
इसलिए मैं इन सवालों के साथ दुबारा शब्बीर अंसारी के पास गया, अंसारी ने दिलीप कुमार के जीवन मे घटित होने वाले विभिन्न घटनाओं के बारे में बताया जिसने उनको पसमांदा आंदोलन के समर्पण के लिए संवेदनशील बनाया। शब्बीर साहब ने बताया कि हालांकि दिलीप साहब खुद भी सामाज के प्रति बहुत जागरूक थे, लेकिन शुरुआत में वो भी मुस्लिम समाज में जाति के सवाल पर दुविधा में थे। फिर भी समय के साथ वो महाराष्ट्र के इस सामाजिक न्याय के अभियान के एक योद्धा के रूप में उभरे।
शब्बीर साहब ने एक घटना का वर्णन किया जिसने दिलीप कुमार को जाति और उसकी दुष्ट प्रवृति को लेके संवेदनशील बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया। दिलीप कुमार बचपन में फुटबॉल खेला करते थें, उनके बहुत से दोस्तों के बीच एक दलित बालक भी था, जो एक बार फुटबॉल टीम का कप्तान बनता है, कप्तान बनने के बाद उसने सभी दोस्तों को अपने घर खाने की दावत पर बुलाया, लेकिन सिर्फ दिलीप कुमार ही उसके घर दावत पर पहुंचे और दूसरे अन्य दोस्तो में से कोई भी खाने पर नही आया। जब दिलीप कुमार ने उनकी अनुपस्थिति के बारे पूछा तो उसने बताया कि मैं नीच जाति का हूँ, वो लोग मेरे घर नही आते और हमारे यहाँ खाना नही खाते। दिलीप कुमार यह सुन कर हैरत में पड़ गए।
एक और घटना ने दिलीप कुमार को प्रभावित किया. हुआ ये कि महाराष्ट्र के छः तीव्रबुद्धि के पसमांदा छात्र जो आर्थिक रूप से बहुत कमज़ोर थे, संगठन से आर्थिक सहायता की माँग किया, शब्बीर साहब ने दिलीप कुमार को बताया कि अन्य दूसरे पिछड़े समुदायों के लोग आरक्षण का लाभ ले रहें हैं अगर पसमांदा को भी आरक्षण का लाभ मिले तो ये भी डॉक्टर और इंजीनियर बन सकने में सक्षम हैं। यह सुनने के बाद दिलीप कुमार इस विचार पर इतने आकर्षित हुए कि उन्होंने उन सभी छः बच्चों की पूरी फीस का भुगतान कर दिया। इसी घटना के बाद दिलीप कुमार आधिकारिक तौर पर संगठन में शामिल हो गए। वास्तव में पसमांदा आरक्षण की लड़ाई में दिलीप कुमार की सक्रिय सहभागिता के कारण उनको अशराफ उलेमा के फतवे और अशराफ अभिजात्य वर्ग के कटु आलोचना का सामना भी करना पड़ा। जबकि उनकी यह सक्रियता निर्धन बच्चों को शिक्षा दिलाने में मदद कर रही थी। दिलीप कुमार अक्सर बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर के साथ अपनी मुलाकातों की चर्चा करते हुए कहा करते थे कि कैसे इन मुलाकातों ने जाति के सवाल और जातिगत भेदभाव को लेकर उनके अन्तः करण को जागृत किया।
एक उच्च जाति और अभिजात्य पृष्ठभूमि से पसमांदा अधिकारों के लिए लड़ने वाले एक योद्धा तक की कहानी अवश्य ही एक महान यात्रा वृतांत है। चाहे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के साथ बैठकों का प्रभाव रहा हो या दलित और पसमांदा की हालात के एहसास का अनुभव या फिर विस्थापित बचपने का निजी अनुभव, यह पता कर पाना बहुत कठिन होगा कि कब उनका हृदय परिवर्तन हुआ। फिर भी हम कह सकते हैं कि इन घटनाओं के बाद उन्होंने हमेशा के लिए अपनी जातीय अस्मिता से पार पा लिया। इस काम से दिलीप साहब ने कभी शोहरत नहीं चाही, कभी भी इसके सहारे आम लोगों में अच्छा बनने का दम्भ नहीं भरा जिससे उनके पेशे को फायदा हो, जैसा कि भारतीय सिनेमा में दस्तूर रहा है। यह तथ्य कि मौजूदा पीढ़ी के बहुत कम लोग पसमांदा आंदोलन में उनके महत्वपूर्ण भूमिका को जानते हैं एक बहुत बड़ा सबूत है कि उन्होंने कभी भी आंदोलन पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश नही किया और यह कि वो हमेशा आंदोलन से जुड़े नेताओं को अपने ऊपर वरीयता देकर आगे बढ़ाते थे। शब्बीर अंसारी ने बताया कि दिलीप साहब स्वयं को बागबान और माली की तरह प्रस्तुत करते हैं। उनका विश्वास है कि वो एक फल-विक्रेता के बेटे होने के नाते माली के लिए ज़्यादा उचित और हक़दार हैं।
दिलीप साहब पसमन्दा आंदोलन के हमेशा बागबान और माली रहेंगें। ऐसा बागबान जो बाग़ को पालता पोस्ता है, लेकिन उसके फल से दूसरे लोग फायदा उठाते हैं। मैं इस हस्ती की लंबी आयु और स्वास्थ्य की कामना करता हुँ।
आभार :मैं अपने साथियों, शफीउल्लाह अनीस और खालिद अनीस अंसारी का हार्दिक धन्यवाद करना चहूँगा जिन्होंने इस कृति को लिखने के दौरान महत्वपूर्ण वार्तालाप किया।