अमेरिका या यूरोप में आई फोन(iphone) का सब के पास होना और हर किसी के पास होना लोगों के लिए एक मुद्दा बन जाता है तो वहीँ भारत में कितने घंटे बिजली मिलती है यह एक मुद्दा बनता है। जब हर समाज के मुद्दे अलग होते हैं तब उनको समझने का तरीका भी अलग होना चाहिए। उनको किसी प्रकार से या राजनैतिक तौर से सुलझाया जाये, यह भी अलग तरह से ही होगा। आखिर उन मुद्दों में क्यों वक़्त ज़ाया किया जाये जो हमारे हैं ही नहीं, ख़ास तौर से तब जब हमारे खुद के मुद्दे हमारी राह देख रहे हों। इसी बुनियाद पर देखा जाए तो हर एक मुद्दा पसमांदा का मुद्दा नहीं हो सकता, न ही इतना वक़्त है और न ही इतनी ऊर्जा। यह एक पेचीदा मसला है और इस में दखल है इतिहास, वर्ग और विशेषाधिकार (privilege) का, जिसको समझना ज़रूरी है।
जब देश में आज़ादी आई तो अशराफ तबक़े को सब से ज्यादा नुक्सान हुआ। जो कभी जागीरदार और ज़मींदार होते थे अब वे एक जनतंत्र के गुलाम हो गए। सभी को वोट देने का अधिकार मिला गया। जिन्होंने ने ज़ात पात के नाम पर विरासतें बना रखी थी, उनकी तो विरासतें ही लुट गई। आज भी यह तबका उसी विरासत के खोने के विलाप में डूबा पड़ा है, और उसकी प्रप्ति के लिए सक्रिय भी है। आज भी उनके लिए उर्दू, बाबरी मस्जिद, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय(AMU), पर्सनल लॉ एक एहम मुद्दा बने हुए हैं। आखिर पसमांदा को इन मुद्दों से लेना ही क्या है? उनके जीवन के कौन से जोखिम इन मुद्दों से सटे हुए हैं? पसमांदा तो पहले भी अपनी मेहनत, मशक्क़त के दम पर जी रहा था, आज भी अपनी मेहनत की ही कमाई खाता है और कल भी अपनी मेहनत के दम पर ही जिंदा रहेगा, आगे बढ़ेगा।
पसमांदा के मुद्दे रोटी, कपड़ा, मकान और सुरक्षा के हैं। ऐसे भी हमारी उर्दू कहाँ ख़ालिस थी, न ही ज़रूरत है। आज के दौर में उर्दू को बचाने से अंग्रेजी सीखना ज्यादा ज़रूरी है। मस्जिदों में हमें कोहनी मार कर पीछे किया ही जाता रहा है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कौन सी हमें हमारी जनसँख्या के लिहाज़ से भागीदारी मिली हुई है? और पर्सनल लॉ के मुद्दे पर हम भेड़-बकरियों की तरह सिर्फ भीड़ बढ़ाने के काम आते हैं वर्ना बोर्ड के लगभग सारे सदस्य तो सय्यद ही हैं। अगर आप देखेंगे तो पाएँगे कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) में शिया-सुन्नी, बरेलवी, देवबंदी, उत्तर-दक्षिण हर किसी की हिस्सेदारी है, बस अगर कोई समीकरण नहीं है तो वो है पसमांदा-अशरफ। और सिर्फ पसमांदा ही क्यों, सिवाए सय्यद के कोई और बिरादरी भी मुश्किल से मिलेगी।
तो ज़रूरत यह है की सैयदवादी-मनुवादी अशराफ के इन भावुक मुद्दों को हम-आप नज़रंदाज़ करें। इन में हमारे लिए कुछ भी नहीं रखा है. न हम AMU के VC बनाए जाएँगे, न AIMPLB के सदर ही बन सकते हैं। हम न तो तीन में हैं और न ही तेरह में। और बन भी गए तो क्या? बात समाज की है, किसी एक दो की नहीं। इन मुद्दों से हमारा रोटी, कपड़ा, व्यापार और सुरक्षा के मुद्दे तो नहीं ही हल हो जाएँगे, हाँ भावनाओं की राजनीति में हम व्यर्थ खर्च ज़रूर हो जाएँगे।
ज़रूरत यही है कि इन जज्बाती मुद्दों पर खून न गरम किया जाए। आज पसमांदा ही सब से ज्यादा असुरक्षित हैं। जिस की झोंपड़ी कमज़ोर है वह जल्दी ढह जाएगी। जिनकी कोठियाँ और हवेलियाँ बाप दादाओं ने छोड़ रखी हैं उन्हें पसमांदा मुद्दों की कुछ नहीं पड़ी है. यही वजह है की सय्यद शहाबुद्दीन कहते थे कि “मुसलमान कई और गुजरात (2002) झेल सकता है।” उन्हें तो अपनी राजनीतिक पहुँच पर भरोसा था कि उन्हें कुछ नहीं होने वाला है। दंगो में उनके घर का कौन सा चराग भुझ गया! हाँ इन जज्बाती राजनीति से वह कौम के हीरो ज़रूर बन गए थे। आज भी गौ रक्षा में मारे जाने वाले सारे के सारे लोग या तो पसमांदा हैं या फिर दलित हैं। जो मुस्लिम कयादत पांच करोड़ सिग्नेचर ट्रिपल तलाक मुद्दे पर इकठ्ठा कर सकती थी वह आज इतनी लाचार कैसे हो गई की गौ-रक्षा पर एक भारी विरोध भी न दर्ज कर पाए? इन सवालों का जवाब बस यह है कि जिनके घर का चराग बुझता है, दर्द उन्हीं को होता है। अशराफ के लिए तो पहलु और अखलाक़ बस एक पीड़ित (victim) हैं जिनके परिवार को वह इफ्तार पार्टियों में परेड कराकर NGO के लिए पैसे निकलवा सकते हैं, किताबें लिख सकते हैं, या पोलिटिकल करियर बना सकते हैं। और जिन लोगों ने नज़र रखी होगी वह देख भी रहे होंगे कि ऐसा पहले से ही होना शुरू भी हो गया है।
इस लिए, संयम से काम लेने की ज़रूरत है। इन अशराफ मुद्दों में वक़्त और ज़ेहन व्यर्थ न किया जाए। मुल्क में सुकून होगा, जो कि अशरफ दृष्टिकोण प्रभावित राजनीति से मुमकिन नहीं है, तो हम-आप अपनी मेहनत और लगन से आगे ही बढ़ेंगे. बड़ी ही मुश्किल से हम लोग लोकतंत्र के दम पर अशराफ के चंगुल से छूटे हैं, वर्ना आज भी हम किसी ज़मींदार के घर पर बेगारी कर रहे होते। जिनकी विरासत लुटी हैं, ज़मींदारी गई है, उन्हें बाबर के नाम पर रोने दीजिये। हमें आज़ादी मिली है उत्पीड़न और ज़ुल्म के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करने की, अपने जातिये परिवेश से अपने वक्तव्यों को दरुस्त तरीके से समाज में रखने की. फिर से इन मज़हबी और भावनात्मक मायाजाल में फँस कर हमें तो अपनी आज़ादी नहीं गँवानी है। और मान भी लीजिये कि अगर बाबरी मस्जिद बन भी गई तो भी वह एक शाही मस्जिद ही होगी और उसका शाही-इमाम भी हमेशा की तरह एक सय्यद ही होगा। हम और आप को कोहनी ही झेलनी है।