Wednesday, 17 August 2016 10:20

बच्चों को बिगाड़ते कार्टून

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एकल परिवारों के इस दौर में मासूम बच्चे कार्टून चरित्रों के मोहजाल में फंसकर रह गए हैं। स्कूल के अलावा मिलने वाले समय का बड़ा हिस्सा बच्चे कार्टून कार्यक्रम देखने में लगाते हैं। छुट्टियों में तो इन्हें देखने में बच्चे और भी ज्यादा समय बिताते हैं। देखने में आ रहा है कि जीवन की भागदौड़ में उलझे अभिभावक भी इन कार्यक्रमों को बच्चों के लिए समय बिताने का आसान सा जरिया समझ बैठे हैं। बच्चे अकेले ही अपनी दिनचर्या का बड़ा हिस्सा इन्हें देखने में बिताते हैं। इन कार्यक्रमों में क्या दिखाया जा रहा है? यह अभिभावकों को पता तक नहीं होता। आजकल ऐसे कई कार्टून हैं जो हिंसा और अंधविश्वास भी फैला रहे हैं।


ऐसे दृश्यों को प्रस्तुतीकरण के लिए भाषा भी वैसी ही अपनाई जाती है। ये आक्रामक और अजीबोगरीब भाषा-शैली मासूमों के दिलोदिमाग पर गहरा प्रभाव डालती हैं। घर के माहौल में एहतियात बरतने और बच्चों को भाषा पर ध्यान दिए जाने के बावजूद आजकल बच्चे अजीबोगरीब भाषा बोलते नजर आते हैं। कई अपमानजनक और बेहूदा शब्द उनकी बातचीत का हिस्सा बन रहे हैं। आमतौर पर देखने में आता है कि बच्चे कार्टून चरित्रों की तरह बोलने की कोशिश करते हैं। शुरू-शुरू में घर के लोगों को भी यह मजाक से ज्यादा कुछ नहीं लगता। धीरे-धीरे ये शब्दावली बच्चों के व्यवहार का हिस्सा बन जाती है और उनके व्यक्तित्व और विचार दोनों पर असर डालती है। सोचने वाली बात यह भी है कि इन कार्यक्रमों की यह शब्दावली मासूम बच्चों को जरूरी और गैरजरूरी सब कुछ सीखा रही है। हिंसा, तिलिस्म और दिखावटीपने को महिमामंडित करने वाले इन कार्टून चरित्रों का बच्चों के मन पर गहरा असर पड़ता है। कितने ही बच्चे इन कार्टूनों में दिखाए जाने वाले करतब करने के फेर में दुर्घटनाओं का शिकार बनते हैं।
मौजूदा दौर में महानगरों में बसे एकल परिवारों में बच्चों का मन और जीवन कई तरह के बदलावों से जूझ रहा है। आज देश में तीस प्रतिशत स्कूली बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को देखभाल की जरूरत है। यह कहीं न कहीं अकेलेपन का नतीजा है जो उन्हें कार्टून कार्यक्रमों को देखने का लती भी बना रहा है, जिसका सबसे तकलीफदेह पहलू यह है कि बच्चों की किताबों से दूरी भी बढ़ रही है। स्कूल और पाठ्यक्रम की पढ़ाई के अलावा जो भी समय मिलता है, उसमें बच्चे बाल पत्रिकाएं वगैरह न पढ़कर कार्टून देखने में बिताते हैं। तोहफे में मिलने वाले गैजेट पर बच्चे या तो गेम खेलते हैं या कार्टून देखते हैं।
शैतानी सोच और जादुई तिलिस्म की कहानियां कुछ इस तरह से परोसी जा रही हैं कि बच्चे उसे हकीकत समझ बैठते हैं। ऐसे कार्टून कार्यक्रम लगभग न के बराबर हैं जो बच्चों को सही सीख और संस्कार-सरोकार की बातें समझाएं। एक ताजा अध्ययन के मुताबिक जो बच्चे रात को सोने से पहले हिंसक और आक्रामक कार्यक्रम देखते हैं उनकी नींद पर इसका नकारात्मक असर पड़ता है। उन्हें दुस्वपन और डर कर उठ जाने जैसी समस्याएं भी झेलनी पड़ती हैं। अमेरिका में एक अध्ययन में सामने आया है कि जो बच्चे उल्टी-पुल्टी चीजें देखते हैं, उन्हें ठीक से नींद नहीं आती। ऐसे बच्चे बुरे सपने देखते हैं और दिन में थकान महसूस करते हैं। चार से चौदह साल तक के बच्चे टीवी दर्शकों तकरीबन का 18. 3 फीसद हैं। एक अध्ययन के मुताबिक ढाई साल तक के बच्चे एक हफ्ते में तकरीबन बत्तीस घंटे कार्टून कार्यक्रम देखने में लगाते हैं। कामकाजी और गैरकामकाजी दोनों ही अभिभावकों के लिए बच्चों को कार्टून कार्यक्रमों में व्यस्त रखना हमारे घरों में आम बात है।
आज के समय में किस्सों-कहानियों के जरिए बच्चों का मनोरंजन करना बीते जमाने की बात हो गई लगती है। कहानियां, जो सही अर्थों में बच्चों का भाषिक ज्ञान और शब्दावली बढ़ाने में सहायक होती हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बालमनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि कहानियां बालमन को बौद्धिक और भावनात्मक दोनों ही स्तरों पर सकारात्मक ढंग से प्रभावित करती हैं। उन्हें कुछ ऐसा देखने, सुनने और पढ़ने को मिले जो उनकी मासूमियत को बरकरार रखते हुए जीवन से जुड़ी बातों की सीख दे सके। कार्टून कार्यक्रमों की लत बच्चों को अच्छी चीजों से दूर ले जा रही है। स्कूल के पाठयक्रमों के अलावा बच्चे और भी जानकारीपरक किताबें और जीवनियां आदि पढ़ें तो उनमें व्यावहारिक सोच और संवेदनशील विचारों को पनपने का मौका मिलता है। मनोचिकित्सकों का मानना है कि कई कार्यक्रम बच्चों में हिंसक व्यवहार और अभद्र भाषा को बढ़ावा दे रहे हैं। छोटी उम्र में ही बच्चे आलस और अनिद्रा जैसी समस्याओं के शिकार बन रहे हैं और अनगिनत स्वास्थ्य समस्याएं भी उन्हें घेर रही हैं। घर से बाहर निकलकर खेलने और सक्रिय रहने की सोच गुम हो रही है।
विचारणीय यह भी है कि न केवल इनमें दिखाई जाने वाली विषयवस्तु और भाषाशैली बालमन पर असर डाल रही है बल्कि कई और शारीरिक और मानसिक समस्याएं भी बच्चों से उनका बचपना छीन रही हैं। मोटापा और आंखों से जुड़ी समस्याएं तो विशेषकर घंटों टीवी से चिपककर इन कार्यक्रमों को देखने के चलते ही हो रही हैं। अकेले इन कार्यक्रमों को देखने वाले बच्चे असामाजिक और आत्मकेंद्रित हो जाते हैं। टीवी पर चल रहे डोरेमोन कार्यक्रम का किरदार नोबिता अपने माता-पिता की बात नहीं मानता है। साथ ही नोबिता को एक बेहद आलसी बच्चे के रूप में भी दिखाया गया है। इसी तरह शिन चैन कार्टून का मुख्य पात्र भी अपनी मां के लिए तकलीफें खड़ी करता रहता है। वह अपनी मां का मजाक उड़ाता है। इस तरह के और भी कई कारण हैं जिनकी वजह से यह माना जा रहा है कि इन कार्यक्रमों का बालमन पर खराब असर पड़ है ।
अधिकतर देशों में बच्चों के लिए प्रसारित किये जा रहे कार्यक्रमों की विषयवस्तु को गंभीरता से लिया जाता है। यही वजह है कि भाषा और व्यवहार पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव की वजह से ऐसे कार्यक्रमों पर पाबंदी लगा दी गई है। 2006 में भारत में भी शिनचेन कार्यक्रम पर प्रतिबंध लगाया गया था। इस पर कई देशों में पाबंदी लगाई जा चुकी है। हमारे यहां भी अब लोकप्रिय हो रहे दो किरदार डोरेमॉन और शिनचेन को लेकर सरकार से शिकायत की गई है। हमारे यहां करीब साढ़े तीन करोड़ बच्चों पर इन कार्टून किरदारों का असर पड़ रहा है। इन्हें देखकर बच्चे चमत्कार पर भरोसा करना, पढ़ाई से दूरी बनाना और माता-पिता से लड़ना-झगड़ना सीख रहे हैं। चीन, अमेरिका, जर्मनी, ब्राजील, अर्जेंटीना, इजरायल जैसे तकरीबन पचास देशें में इस पर पाबंदी लग चुकी है।

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